

नेता जी अंकल-हंटर वाले अंकल
डर गई जो बिजलियों से जल-कणों की अमर सेना;
तो धरा पर कौन फिर जीवन-अमृत बरसाएगा।
कट गए जो स्वप्न तेरे तिमिर की तलवार से-
कौन फिर जीवन में तेरे
भोर लेके आएगा॥-- अतुल पांडे
मुजफ्फरपुर बालिका संरक्षण गृह में १०-१२ वर्ष के बच्चियों ने जब अपने हृदयविदारक दर्द का कोर्ट के सामने बयान किया तो मानवीय मूल्यों में भरोसा रखने वाले मानवों ने हौसला और हिम्मत दिखने के बजाय, उलटे को उलट कर सीधा करने के बजाय आत्मसमर्पण करते दिखे. ऐसा लगा जैसे समाज किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया है और मज़बूरी में अनाप सनाप बक रहा है,
पिछले दिनों जिस स्तर पर औरतों के प्रति हिंसा की घटनाए प्रकाश में आई हैं, हम सबको सोचने पर मजबूर कर दिया है. मुझे जो समझ आता है उसके अनुसार, किसी भी समस्या का समाधान तब तक नहीं हो सकता जब उसके कारण को न समझ पायें. रोग का समुचित इलाज तब तक संभव नहीं जब तक रोग को पकड़ न लें.
इन घटनाओं की जड़ में जाने से यह पता चलता है कि यह बीमारी शारीरिक जरूरतों से सम्बन्ध नहीं रखता इसलिए शारीरिक उपाय करना भी खाना पूर्ति करना मात्र होगा. या यूँ कहें के शारीरिक उपाय की व्यवस्था बनाकर हम इस बीमारी को और अगले स्तर पर ले जाने की व्यवस्था कर रहे हैं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. अब जरा सोचिये, इन तमाम आरोपियों की जीवन संगीनियाँ इन्हें देवता के रूप में सुबह शाम पुजती रही होंगी और राजनीतिक मजबूरियां कुछ ऐसी हो सकती है की आज भी पुजती हुई दिखें. अब जब जीती जागती परियां इनके हवस की बेलगाम भूख को तृप्त नहीं कर पा रहीं है तो सेक्स कियोस्क में रखे सेक्स डौल इनके भूख को कैसे नियंत्रित करेगी.
साहब आप माने या ना, यह समस्या शारीरक न हो कर मानसिक, वैचारिक, मूल्य रहित जीवन शैली का परिणाम है. मैं इस समाज के लोगों से कुछ तीखे सवाल पूछना चाहता हूँ , कृपया अन्यथा न लें. क्यूंकि खतरनाक बीमारी के इलाज के लिए ऑपरेशन के दर्द को बर्दाश्त करना भी समझदारी ही कहलाती है.
सवाल १. हमारा स्तित्व हीं नारी से शुरू होता है, हमारी माँ, बहन,बेटी, चाची, भाभी, .....हम सबके घर में होती तो हैं, पर कभी किसी अपराधी ने अपने हीं घर में नारी के स्तित्व पर कोई हमला किया है क्या? ( अपवाद को छोड़ दें-वो भी हमारे सांस्कृतिक दिवालियापन का ही नतीजा कहा जाएगा)
जबाब आएगा नहीं. हमारी माँ हमारे लिए देवी, हमारी बहन-बेटी हमारे लिए जान का टुकड़ा, चाँद का टुकड़ा (पता नहीं क्या क्या उपमा सुरक्षित रखते हैं) होते हैं, जबकि शारीरिक रूप से देखा जाए तो दोनों नारियों में कोई फर्क नहीं है. एक की हम पूजा करते हैं और दुसरे को सिगरेट से जलाते हैं. मासूम बच्चियों के शरीर,दिमाग और दिल का इस तरह मर्दन करते हैं जिसे जानकार राक्षस भी शरमा जाए. फर्क सिर्फ वैचारिक स्तर पर है, हमारे दिलों दिमाग में यह बात बिठाया गया है कि माँ इश्वर की साक्षात् स्वरुप है और उसके पालन में छोटी सी भी भूल होने पर पारिवारिक स्तर पर बचपन से हीं सुधार के डोज दिए जाते रहे हैं.
आप कह सकते हैं तो क्या उस समय तक, तब हमारी वैचारिक कमजोरी दूर न हो जाए, हमें कुछ नहीं करना चाहिए. जी नहीं मै ऐसा बिलकुल नहीं कह रहा. हमें इस आसुरी समस्या को निम्न्लिखित स्तरों पर एक साथ लड़ना होगा;
१. तात्कालिक उपाय- ऐसे घटनाओं का सामूहिक विरोध एवं प्रतिरोध, कानून व्यवस्था को मजबूत करना, त्वरित न्याय की व्यवस्था के लिए सरकारों को आंदोलन के माध्यम से मजबूर करना
२. पुरुष एवं महिला की जनसंख्या अनुपात में सुधार- इस बात से नाकारा नहीं जा सकता की लड़कों के तुलना में लड़कियों की संख्या आज भी बहुत कम है, और ऐसे बहुत से पुरुष हैं जिन्हें समाज के स्वीकार्य दायरे के अंतर्गत परिवार बसाने का अवसर नहीं मिलता. इस के लिए सामाजिक मुहीम चलाना जैसे, दहेज़ मुक्त व्याह, भ्रूण हत्या पर पूर्ण रोक, लड़कियों के प्रति सामाजिक नकारात्मक सोच ( ग्रामीण स्तर पर खास तौर से) को बदलने के लिए प्रयास इत्यादि
३. आजादी से बर्बादी- विचारों की स्वंत्रता, सृजनशीलता, कला क्षेत्र में आजादी जैसे भ्रमित करने बाले बड़े शब्दों की आड़ में जिस तरह हिंसा और सेक्स हमारे समाज के सामने परोसा जा रहा है, इससे हमारा वातावरण बुरी तरह प्रदूषित हुआ है. आज हमारे समाज के ६ वर्ष के बच्चे का भी आराम से पोर्न मटेरियल तक पहुँच है. हमने उनका बचपन उनसे छीन लिया, किशोरों का किशोरावस्था उनसे छीन लिया ताकि हम अपना धंधा चमका सकें. आपका धंधा तो चमक गया लेकिन समाज का भविष्य अँधेरे की और प्रवृत हो गया है. आपकी आजादी किसी की बरबादी हो सकती है, जब तक इस संवेदन्शीलता के साथ हम काम नहीं करेंगे, हम अपने सामजिक दायित्वों के साथ धोखा करते रहेंगे.
४. वातावरण परिष्कार- पर्यावरण प्रदुषण से हम परिचित और चिंतित हैं लेकिन वातावरण प्रदुषण आज भी हमारे ध्यान को आकर्षित नहीं किया है. जिस प्रकार वायुमंडल के प्रदूषित होने से नए नए खतरनाक बीमारियों का समाना करना पड रहा है और हम इसके लिए बहुत गंभीरता पूर्वक उपाय कर रहे हैं. उसी प्रकार गलत विचारों के उत्पादन और संप्रेषण से अंतरिक्ष (वातावरण) बुरी तरह से प्रदूषित हो चूका है. इसका नतीजा हम साफ़ देख सकते हैं की छोटे छोटे बच्चे भी यौन हिंसा में शामिल हो रहे हैं. हमें पारिवारिक, शैक्षणिक, सामाजिक स्तर पर मूल्य आधारित जीवन को प्रायोजित करना पड़ेगा
इतना तो तय है कि हवस के पतंग को ढील देकर नीचे नहीं गिराया जा सकता है, वह और नई उंचाई पर चढ़ेगा, अगर हमें उसे नीचे उतारना है तो अनुशाशन की डोर को खींचना हीं होगा, उलटे को उलटकर हीं सीधा किया जा सकता है.
जय हिन्द