Dhaaraa370

Wednesday 15 May 2019

परशुराम की प्रतीक्षा- खंड १



गरदन पर किसका पाप वीर ! ढोते हो ?
शोणित से तुम किसका कलंक धोते हो ?
उनका, जिनमें कारुण्य असीम तरल था,
तारुण्य-ताप था नहीं, न रंच गरल था;
सस्ती सुकीर्ति पा कर जो फूल गये थे,
निर्वीर्य कल्पनाओं में भूल गये थे;
गीता में जो त्रिपिटक-निकाय पढ़ते हैं,
तलवार गला कर जो तकली गढ़ते हैं;
शीतल करते हैं अनल प्रबुद्ध प्रजा का,
शेरों को सिखलाते हैं धर्म अजा का;
सारी वसुन्धरा में गुरु-पद पाने को,
प्यासी धरती के लिए अमृत लाने को
जो सन्त लोग सीधे पाताल चले थे,
(अच्छे हैं अबः; पहले भी बहुत भले थे।)
हम उसी धर्म की लाश यहाँ ढोते हैं,
शोणित से सन्तों का कलंक धोते हैं।

परशुराम कि प्रतीक्षा- खंड 3




किरिचों पर कोई नया स्वप्न ढोते हो ?
किस नयी फसल के बीज वीर ! बोते हो ?
दुर्दान्त दस्यु को सेल हूलते हैं हम;
यम की दंष्ट्रा से खेल झूलते हैं हम।
वैसे तो कोई बात नहीं कहने को,
हम टूट रहे केवल स्वतंत्र रहने को।
सामने देश माता का भव्य चरण है,
जिह्वा पर जलता हुआ एक, बस प्रण है,
काटेंगे अरि का मुण्ड कि स्वयं कटेंगे,
पीछे, परन्तु, सीमा से नहीं हटेंगे।
फूटेंगी खर निर्झरी तप्त कुण्डों से,
भर जायेगा नागराज रुण्ड-मुण्डों से।
माँगेगी जो रणचण्डी भेंट, चढ़ेगी।
लाशों पर चढ़ कर आगे फौज बढ़ेगी।
पहली आहुति है अभी, यज्ञ चलने दो,
दो हवा, देश की आज जरा जलने दो।
जब हृदय-हृदय पावक से भर जायेगा,
भारत का पूरा पाप उतर जायेगा;
देखोगे, कैसा प्रलय चण्ड होता है !
असिवन्त हिन्द कितना प्रचण्ड होता है !
बाँहों से हम अम्बुधि अगाध थाहेंगे,
धँस जायेगी यह धरा, अगर चाहेंगे।
तूफान हमारे इंगित पर ठहरेंगे,
हम जहाँ कहेंगे, मेघ वहीं घहरेंगे।
जो असुर, हमें सुर समझ, आज हँसते हैं,
वंचक श्रृगाल भूँकते, साँप डँसते हैं,
कल यही कृपा के लिए हाथ जोडेंगे,
भृकुटी विलोक दुष्टता-द्वन्द्व छोड़ेंगे।
गरजो, अम्बर की भरो रणोच्चारों से,
क्रोधान्ध रोर, हाँकों से, हुंकारों से।
यह आग मात्र सीमा की नहीं लपट है,
मूढ़ो ! स्वतंत्रता पर ही यह संकट है।
जातीय गर्व पर क्रूर प्रहार हुआ है,
माँ के किरीट पर ही यह वार हुआ है।
अब जो सिर पर आ पड़े, नहीं डरना है,
जनमे हैं तो दो बार नहीं मरना है।
कुत्सित कलंक का बोध नहीं छोड़ेंगे,
हम बिना लिये प्रतिशोध नहीं छोड़ेंगे,
अरि का विरोध-अवरोध नहीं छोड़ेंगे,
जब तक जीवित है, क्रोध नहीं छोड़ेंगे।
गरजो हिमाद्रि के शिखर, तुंग पाटों पर,
गुलमार्ग, विन्ध्य, पश्चिमी, पूर्व घाटों पर,
भारत-समुद्र की लहर, ज्वार-भाटों पर,
गरजो, गरजो मीनार और लाटों पर।
खँडहरों, भग्न कोटों में, प्राचीरों में,
जाह्नवी, नर्मदा, यमुना के तीरों में,
कृष्णा-कछार में, कावेरी-कूलों में,
चित्तौड़-सिंहगढ़ के समीप धूलों में—
सोये हैं जो रणबली, उन्हें टेरो रे !
नूतन पर अपनी शिखा प्रत्न फेरो रे !
झकझोरो, झकझोरो महान् सुप्तों को,
टेरो, टेरो चाणक्य-चन्द्रगुप्तों को;
विक्रमी तेज, असि की उद्दाम प्रभा को,
राणा प्रताप, गोविन्द, शिवा, सरजा को;
वैराग्यवीर, बन्दा फकीर भाई को,
टेरो, टेरो माता लक्ष्मीबाई को।
आजन्मा सहा जिसने न व्यंग्य थोड़ा था,
आजिज आ कर जिसने स्वदेश को छोड़ा था,
हम हाय, आज तक, जिसको गुहराते हैं,
‘नेताजी अब आते हैं, अब आते हैं;
साहसी, शूर-रस के उस मतवाले को,
टेरो, टेरो आज़ाद हिन्दवाले को।
खोजो, टीपू सुलतान कहाँ सोये हैं ?
अशफ़ाक़ और उसमान कहाँ सोये हैं ?
बमवाले वीर जवान कहाँ सोये हैं ?
वे भगतसिंह बलवान कहाँ सोये हैं ?
जा कहो, करें अब कृपा, नहीं रूठें वे,
बम उठा बाज़ के सदृश व्यग्र टूटें वे।
हम मान गये, जब क्रान्तिकाल होता है,
सारी लपटों का रंग लाल होता है।
जाग्रत पौरुष प्रज्वलित ज्वाल होता हैं,
शूरत्व नहीं कोमल, कराल होता है।

परशुराम की प्रतीक्षा खंड-२- हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे ! जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !




हे वीर बन्धु ! दायी है कौन विपद का ?
हम दोषी किसको कहें तुम्हारे वध का ?
यह गहन प्रश्न; कैसे रहस्य समझायें ?
दस-बीस अधिक हों तो हम नाम गिनायें।
पर, कदम-कदम पर यहाँ खड़ा पातक है,
हर तरफ लगाये घात खड़ा घातक है।
घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है,
लेकिन, कमरे में गलत हुक्म लिखता है,
जिस पापी को गुण नहीं; गोत्र प्यारा है,
समझो, उसने ही हमें यहाँ मारा है।
जो सत्य जान कर भी न सत्य कहता है,
या किसी लोभ के विवश मूक रहता है,
उस कुटिल राजतन्त्री कदर्य को धिक् है,
यह मूक सत्यहन्ता कम नहीं वधिक है।
चोरों के हैं जो हितू, ठगों के बल हैं,
जिनके प्रताप से पलते पाप सकल हैं,
जो छल-प्रपंच, सब को प्रश्रय देते हैं,
या चाटुकार जन से सेवा लेते हैं;
यह पाप उन्हीं का हमको मार गया है,
भारत अपने घर में ही हार गया है।
है कौन यहाँ, कारण जो नहीं विपद् का ?
किस पर जिम्मा है नहीं हमारे वध का ?
जो चरम पाप है, हमें उसी की लत है,
दैहिक बल को रहता यह देश ग़लत है।
नेता निमग्न दिन-रात शान्ति-चिन्तन में,
कवि-कलाकार ऊपर उड़ रहे गगन में।
यज्ञाग्नि हिन्द में समिध नहीं पाती है,
पौरुष की ज्वाला रोज बुझी जाती है।
ओ बदनसीब अन्धो ! कमजोर अभागो ?
अब भी तो खोलो नयन, नींद से जागो।
वह अघी, बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गयी, वही पापी है।
जब तक प्रसन्न यह अनल, सुगुण हँसते है; 
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।

वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
तलवार पुण्य की सखी, धर्मपालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ-सालक है।
असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पातक प्रचण्डतम वहीं प्रकट होता है।
तलवारें सोतीं जहाँ बन्द म्यानों में,
किस्मतें वहाँ सड़ती है तहखानों में।
बलिवेदी पर बालियाँ-नथें चढ़ती हैं,
सोने की ईंटें, मगर, नहीं कढ़ती हैं।
पूछो कुबेर से, कब सुवर्ण वे देंगे ?
यदि आज नहीं तो सुयश और कब लेंगे ?
तूफान उठेगा, प्रलय-वाण छूटेगा,
है जहाँ स्वर्ण, बम वहीं, स्यात्, फूटेगा।
जो करें, किन्तु, कंचन यह नहीं बचेगा,
शायद, सुवर्ण पर ही संहार मचेगा।
हम पर अपने पापों का बोझ न डालें,
कह दो सब से, अपना दायित्व सँभालें।
कह दो प्रपंचकारी, कपटी, जाली से,
आलसी, अकर्मठ, काहिल, हड़ताली से,
सी लें जबान, चुपचाप काम पर जायें,
हम यहाँ रक्त, वे घर में स्वेद बहायें।
हम दें उस को विजय, हमें तुम बल दो,
दो शस्त्र और अपना संकल्प अटल दो।
हों खड़े लोग कटिबद्ध वहाँ यदि घर में,
है कौन हमें जीते जो यहाँ समर में ?
हो जहाँ कहीं भी अनय, उसे रोको रे !
जो करें पाप शशि-सूर्य, उन्हें टोको रे !
जा कहो, पुण्य यदि बढ़ा नहीं शासन में,
या आग सुलगती रही प्रजा के मन में;
तामस बढ़ता यदि गया ढकेल प्रभा को,
निर्बन्ध पन्थ यदि मिला नहीं प्रतिभा को,
रिपु नहीं, यही अन्याय हमें मारेगा,
अपने घर में ही फिर स्वदेश हारेगा।

हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त अपना मुझको पीने दो,




राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी की ये पंक्तियां आज भी हमारे देश-समाज पर अक्षरशः लागू होती है.

समर निंद्य है धर्मराज, पर,
कहो, शान्ति वह क्या है,
जो अनीति पर स्थित होकर भी
बनी हुई सरला है?

सुख-समृद्धि का विपुल कोष
संचित कर कल, बल, छल से,
किसी क्षुधित का ग्रास छीन,
धन लूट किसी निर्बल से।
सब समेट, प्रहरी बिठला कर
कहती कुछ मत बोलो,
शान्ति-सुधा बह रही न इसमें
गरल क्रान्ति का घोलो।
हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त
अपना मुझको पीने दो,
अचल रहे साम्राज्य शान्ति का,
जियो और जीने दो।

सच है सत्ता सिमट-सिमट
जिनके हाथों में आयी,
शान्तिभक्त वे साधु पुरुष
क्यों चाहें कभी लड़ाई ?
सुख का सम्यक-रूप विभाजन
जहाँ नीति से, नय से
संभव नहीं; अशान्ति दबी हो
जहाँ खड्ग के भय से,
जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति
को सत्ताधारी,
जहाँ सूत्रधर हों समाज के
अन्यायी, अविचारी;
नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के
जहाँ न आदर पायें;
जहाँ सत्य कहने वालों के
सीस उतारे जायें;
जहाँ खड्ग-बल एकमात्र
आधार बने शासन का;
दबे क्रोध से भभक रहा हो
हृदय जहाँ जन-जन का;
सहते-सहते अनय जहाँ
मर रहा मनुज का मन हो;
समझ कापुरुष अपने को
धिक्कार रहा जन-जन हो;

Saturday 11 May 2019

“Time’s Divider in Chief Article”


 “Time” and “Tide” waits for none.  Because, both of them means business.
In the latest report of “Time” magazine, it meant only business and nothing else. “Time” knew it very well that as on date nothing sells like “Modi” not even “Trump”. Hence, It took a prudent marketing decision to place Mr Narendra Modi on the front page with a sensational headline “India‘s Divider in Chief” written by an offshoot of Indo-Pak parents.
“Time” is fully aware that cover page with sensational tagline is itself more than enough for making the opposition of India to celebrate and ruling party to outrage. Both ways it is going to add to the market of “Time”.
However, when you go through the article, you will come to know that this article contains nothing more than a compilation of allegations and counter allegations hurled by BJP led NDA and Congress led Opposition on each other.
Let us analyze “Time’s Divider in Chief Article”.
When Rahul led opposition is all up in arms quoting the report published in “Time” magazine, they forgot to notice that the same report has ripped apart Nehru, Congress party and Mr Rahul Gandhi, Priyanka and associates. Here is the extract of the report:
1.       Indian Muslims were allowed to keep Shari'a based family law while Hindus were subject to the law of the land. Arcane practices such as the man's right to divorce a woman by repudiating her three times and paying a miniscule compensation-were allowed for Indian Muslims, while Hindus were bound by reformed family law and often found their places of worship taken over by the Indian state." -- Secular Congress??.
2.      "Nehru's political heirs, who ruled India for the great majority of those post independence years, established a feudal dynasty, while outwardly proclaiming democratic norms and principles. India under their rule was clubbish, anglicised and fearful of the rabble at the gates." --Democratic Congress??

3.      "The country had a long history of politically instigated sectarian riots, most notably the killing of at least 2733 Sikhs in the streets of Delhi after the 1984 assassination of Indira Gandhi." - Congress of Gandhian Values??

4.      The incumbent may win again - the opposition, led by Rahul Gandhi, an unteachable mediocrity and a descendant of Nehru, is in disarray" -- Strong Congress led by intelligent Rahul??

5.      "Modi has won- and may yet win again - but to what end? His brand of populism has certainly served as convincing critique of Indian Society, of which there could be no better symbol than the Congress party. They have little to offer other than the dynastic principle, yet another member of the Nehru-Gandhi family. India's oldest party has no more political imagination than to send Priyanka Gandhi -Rahul's sister-to join brother's side. It would be equivalent  of the Democrat's fielding Hillary Clinton again in 2020, with the added enticement of Chelsea as VP." - Politically bankrupt Congress

Last but not the least--

6.      "Modi is lucky to be blessed with so weak an opposition- a ragtag coalition of parties, led by the Congress, with no agenda other than to defeat him" 
I do not close the study half way. It is noteworthy for BJP led by Modi and NDA led by BJP to appreciate certain genuine concerns being raised by various quarters of Indian ecosystem and some of them have rightly found place in “Time” magazine report.
We as a civilized society need to invest heavily on strengthening our old age philosophy of “सर्वे भवन्तु सुखिनः” and ensure that every citizen of the society gets due respect and dignity. We have been failing on these account for so long but if you want to be the change, if you want to be known as different political material you cannot afford to keep caste and religion based differentiation for long and yet try to maintain political niche.
My appeal to India, stand united against all intellectual aggression, be self critic, improve where need to improve, but for god sake don’t celebrate any foreign effort of your degradation just because it may give you a bit of political mileage.
Jai hind

Tuesday 7 May 2019

क्या भगवान परशुराम ने सचमुच २१ बार धरती को क्षत्रिय विहीन कर दिया था?


भगवान परशुराम की प्रासंगिकता
अति प्राचीन काल में कार्तवीर्य नामक एक पराक्रमी लेकिन मदांध राजा हुआ करता था. कहते हैं उसकी हजार भुजाएं थी, इसलिए उसका नाम सहस्रबाहु पड़ा. संभवतः यह अलंकारिक भाषा का प्रयोग है जो इंगित करता है कि उसके ऐसे पांच सौ सहयोगी राजा रहे होंगे जो उसका हर हाल, हर पाप  और हर अत्याचार में समर्थन करते होंगे. अतः राजा कार्तवीर्य उनके भुजाओं को भी अपना हीं  भुजा मानता हो.

उसी राज्य में महर्षि जमदग्नि हुआ करते थे जो उस राजा के निरंकुशता का विरोध करते थे और प्रजाजनों को भी अनीति न सहने के लिए प्रेरित करते रहते थे. सहस्रबाहु को इस बात से बड़ा क्रोध हुआ और उसने महर्षि जमदग्नि को इतना शारीरिक यातना दिया कि उनका देहावसान हो गया.

जमदग्नि और रेणुका के पुत्र परशुराम को जब यह पता चला तो उन्हें भयंकर क्रोध हुआ. साथ हीं इस बात से दुःख भी हुआ कि जिस देश के शासक अनाचारी, दुराचारी, भ्रष्टाचारी, व्यभिचारी हो, जिस देश में साधुओं, लोकसेवियों, बुद्धिजीवियों का उत्पीड़न किया जाता हो फिर भी वहां कि जनता इसके विरुद्ध आवाज न उठा सकें तो उस देश का भला कौन करेगा.

परशुराम के मन में एक भयंकर आक्रोश की प्रचंड अग्नि प्रज्वलित हो गई. उनकी आत्मा उन्हें बार बार प्रतिरोध एवं प्रतिकार के लिए ललकारने लगी. उनके मन में यह विचार बलवती होने लगी कि अगर संसार को प्रगतिशील और शांतियुक्त रहना है तो अनीति का बलपूर्वक उन्मूलन करना हीं होगा

प्रचंड पराक्रमी को मात देने के लिए प्रचंड पराक्रम की भी  जरुरत  होती है सो परशुराम अवांछनीयता एवं अनीति के संहारक भगवान शंकर की प्रचंड तपस्या किया. उनके तपस्चर्या और दृढ़ता से खुश होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिया और बोला- 

"हे लोकमंगल की आकांक्षा करने वाले दृढव्रती उठ, मेरा सहयोग तेरे साथ है”.


परशुराम ने महाकाल से नतमस्तक होकर विनयपूर्वक कहा- 
“हे प्रभो यदि आप मैं व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए रत्ती भार याचना करूँ तो मुझे घृणित कुत्ते की तरह दुत्कार दें, पर अगर मैं लोकमंगल के लिए आपसे कुछ माँगने आया हूँ तो आप मुझे वह शक्ति दें जिससे उन मस्तिष्कों का उच्छेदन कर सकूँ जो पाप और अन्याय से, अविवेक और अज्ञान से ग्रसित होकर अपना और संसार का विनाश कर रहे हैं.”

महाकाल प्रसन्न होकर उन्हें एक प्रचंड परशु प्रदान किया जो कि अजेय और अमोघ था. 


और फिर शुरू हुआ अनीति, अन्याय, अनाचार, दुराचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार के खिलाफ परशुराम का जंग. एक तरफ सशस्त्र साधन संपन्न सेनायें थीं तो दूसरी ओर परशुराम का परशु. पर विजयी अंततः परशुराम का परशु ही हुआ.कहते हैं कि अनाचारियों के उतने सर कट-कट कर धरती पर गिरे कि एक बार समस्त संसार में अनाचारियों का एक नहीं इक्कीस बार धरती से सफाया हुआ.

तथ्य यह है कि व्यापक अनाचार का निवास है मानवीय मस्तिष्क. सभी अनाचारियों के शिर परशुराम जी ने काट डाले  अर्थात उनके दिमागों का आमूल चुल परिवर्तन कर दिया. जो अनाचारी थे उन्हें सदाचारी बना दिया गया. यह अभियान २१ बार चलाया गया , ताकि कहीं किसी कोने में इसका अंकुर छिपा न रह जाय. भावनात्मक एवं बौद्धिक दुर्बुद्धि मनुष्य में गुप्त रूप से छिपी रहती है और अनुकूल समय और माहौल पाकर पुनः फलने फूलने की कोशिस करती है,

परशु” का अर्थ है- प्रबल प्रचार, समर्थ ज्ञान यज्ञ. प्रभावी लोक-शिक्षण जन-मानस परिवर्तन के लिए आवश्यक था. परशुराम जी ने इसी शस्त्र का उपयोग किया और महाकाल शिवशंकर ने उन्हें दिया भी वही था. यह शस्त्र धातुओं का बना भले ही न हो पर उसकी सामर्थ्य बज्र से बढ़कर थी. 
भान रहे, जब इंद्र का लौह वज्र कुंठित हो गया था तो तपस्वी दधीचि कि अस्थियों का मानवीय “अणुबम” प्रयोग किया गया था. वृत्रासुर जैसा अपराजेय असुर उसी से मारा गया था. 
प्रबल प्रचार के समर्थ प्रयोग से ईसाईयों ने अपने उत्पति के दो हजार वर्ष में हीं संसार के एक तिहाई जनता को अपने धर्म में दीक्षित कर दिया. साम्यवाद का जन्म होकर सौ साल भी नहीं हुए के उसने डेढ़ अरब लोगों के मस्तिष्कों पर कब्ज़ा कर लिया.

सर काटने का सही तरीका किसी के विचार बदल देना हीं तो है. बाल्मीकि, अंगुलिमाल, अजामिल, विल्वमंगल जैसे कई दुराचारी संत बन जायं तो इस मस्तिष्क परिवर्तन को आप क्या कहेंगे? हाँ ये अलग बात है कि सिरफिरों के दिमाग को सही करने के लिए कभी कभी तलवार और फरसों की भी जरुरत पड़ती है पर बेहतर तरीका विचारों को बदल देना ही है.

रचनात्मक और संघर्षात्मक शक्तियां निर्धारित दिशा में लगी तो लोक मानस पर उसका प्रभाव पड़ा. तेजस्वी और निखरे हुए व्यक्तित्व, निस्वार्थ भाव से जिस लोक कल्याण कार्य को हाथ में लेते हैं तो उसमे ईश्वर कि सहायता भी मिलती है, और सफलता भी.

कथानक में वर्णन है कि सहस्रबाहु की हजार भुजाओं में से परशुराम जी ने अपने कुल्हाड़ी से ९९८ भुजाएं काट दीं . उसकी केवल दो बाँहें शेष रह गयी थी. इसका अर्थ यही लगता है कि अनीति के समर्थक भी तभी तक साथी बने रहते हैं जब तक इस साझेदारी में निर्बाध गति से लाभ हीं लाभ मिलता रहता है. जैसे उन्हें लगता है कि प्रतिरोध प्रचंड हो रहा है और अपने को लान्च्छित एवं लज्जित होने के साथ-साथ परास्त भी होना पड़ेगा तो उन्हें अनीति का साथ छोड़ते देर नहीं लगती. उसी प्रचंड विरोध का नतीजा था कि सहस्रबाहु अंततः दो भुजा वाला हीं बचा .
आज भी इतिहास उस प्राचीन कथा-गाथा को दुहरा रहा है. पाप के सहस्रबाहु के अनेक साथी साथ मिलकर उसकी ताकत को बढ़ा रहें हैं. अन्याय और अविवेक को जब सफलता मिलती है तो वह मदांध हो जाता है. प्रबुद्धता जब उसे रोकती-टोकती है उसे जमदग्नि कि तरह तिरस्कृत हीं नहीं बल्कि प्राणघातक चोट भी मिलता है, सहस्रबाहु ने जमदग्नि के साथ जो दुर्व्यवहार किया ठीक वैसे ही घटनाएँ पग पग पर, पल पल देखने को मिल रही है. सहस्रबाहु को अजेय होने का अभिमान था और आज की भौतिक सफलता से मदमस्त, मदांध लोगों को भी ऐसा ही अहंकार हो गया है.

आज फिर परशुराम को अपने परशु का उपयोग करना होगा. पाप का प्रतिरोध हीं मानवता की पुकार है. वह पुकार किसी न किसी परशुराम के सर पर चढ़ कर बोलेगी और अपना काम करवा लेगी. भगवान महाकाल का आशीर्वाद सहयोग और साधन “परशु” भी उसे मिलेगा.

और तेजस्वी ईश्वरीय प्रतिनिधि वह काम कर सकने में समर्थ होगा जो दिखने में कठिन हीं नहीं असंम्भव प्रतीत होता है.

समस्त पृथ्वी पर बिखरे हुए अनाचारियों के शिर काट डालना सो भी एक बार नहीं २१ बार. यह एक अतिश्योक्ति लगती है पर यदि अज्ञान के विरुद्ध समर्थ, संगठित और सुनियोजित एक ऐसा सद्ज्ञान अभियान आरम्भ किया जाय जो  जन-मानस को समुद्र मंथन की तरह मथ डाले तो उससे सूर्य जैसा तेज, चन्द्रमा जैसा आरोग्य, कल्पवृक्ष जैसी विपुलता, कामधेनु जैसी तृप्ति और अमृत जैसी पूर्णता उपलब्ध हो सकती है.

लगता है इन दिनों यही हो रहा है. युग निर्माण के लिए प्रतिष्ठापित किया हुआ ज्ञान-यज्ञ लगता है अज्ञान और अनाचार से संबध इस विश्व वसुंधरा पर अमृतमयी शांति की घटाएं बरसाने में सफल होगा  और कोई परशुराम अपने महाकाल प्रदत्त “परशु” से उद्दिग्न कोटि-कोटि सिरों को काटकर उनके ऊपर गणेश जैसे पूज्य शिरों को प्रतिष्ठापित करेगा.

इतिहास तेरी पुनरावृति सफलतापूर्वक संपन्न हो, युगनिर्माण का संकल्प पूर्ण हो, पूर्ण हो पूर्ण हो. 
पंडित श्री राम शर्मा आचार्य जी 

Friday 3 May 2019

तेज बहादुर यादव एक राजनीतिक मोहरा



तेजबहादुर यादव जी का वाराणसी से चुनाव लड़ने की घोषणा, पहले निर्दलीय और फिर समाजवादी उम्मीदवार के रुप में. सपा के दो उम्मीदवारों का नामांकन दाखिल होना और फिर ख़ारिज होना. तेजबहादुर यादव जी का नामांकन का ख़ारिज होना आज राजनीतिक गलियारों में चर्चा का सबसे बड़ा विषय बना हुआ है. बात राजनीति की चली है तो पहले इससे जुड़े राजनितिक पहलू की चर्चा करते हैं.

तेज बहादुर यादव जी का वाराणसी से चुनाव लड़ने का फैसला शुद्ध रूप से एक राजनितिक फैसला है और इसे सेना से जोड़कर देखना राजनितिक अपरिपक्वता की निशानी है. इससे उनको एक राजनितिक माइलेज मिला है और आने वाले दिनों में इसका राजनीतिक फायदा भी मिलेगा. सपा द्वारा उनको अपना प्रत्यासी घोषित करना, बहती गंगा में हाथ धोने जैसा ही है. अगर उनकी सोच सचमुच में तेजबहादुर जी को संसद में भेजना होता तो वे उसे किसी वैसे सीट से टिकट देते जहाँ से जीतने की गुन्जाईस होती. तेज बहादुर यादव किसी भी हालत में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के लिए चुनौती नहीं हो सकते हैं, यह बात उन्हें और उनके राजनितिक आकाओं को भी भली प्रकार मालुम है.

लोग इसे असली चौकीदार बनाम नकली चौकीदार, असली राष्ट्रवाद बनाम नकली राष्ट्रवाद जैसे भारी भरकम शब्दों से जोड़कर अपनी अपनी राजनीति चमकाने के कोशिश कर रहे हैं, इस राजनीतिक दंगल में अगर कुछ छूट गया तो वह है सेना और अर्धसैनिक बलों के असली मुद्दे, जिसमें किसी की दिलचस्पी नहीं है.

सेना से जुड़े मुद्दे इसलिए नहीं उठते हैं क्यूंकि इसका सीधा सम्बन्ध राष्ट्र की सुरक्षा से है. लेकिन जो दूरगामी परिणाम को समझते हैं वो इस बात से सहमत होंगे कि समस्या को टालना समस्या का समाधान नहीं हो सकता है.

 "Taking no decision is also a decision" will not serve the purpose in this case.

सेना को राजनीति से जोड़कर सैनिकों और राष्ट्र दोनों का अहित ना करें.इसलिए आइये  हम कुछ उन मुद्दों कि बात करें जो उनसे जुड़े हुए हैं  :

१. जवानों के वेतनमान विश्वस्तरीय हों.
२. समान रैंक सामान पेंसन का पुनरीक्षण
3. जवानों के सुविधाओं जैसे, छुट्टी, खान पान, रहने-सहने की बेहतर व्यवस्था
४. मेडिकल सुविधाओं में रैंक आधारित भेदभाव की समाप्ति 
४. सहायक प्रथा का तत्काल प्रभाव से अंत
५. योग्य जवानों के अधिकारी वर्ग में पदोन्नति के लिए नियम में उचित बदलाव
६. फॉर्म १० जैसे अतिवादी व्यवस्था का अंत- जिसमे अधिकारी जवानों को पागल घोषित कर जांच के लिए पागलखाना भेज देते हैं और फिर उसकी जिंदगी तबाह हो जाती है.
७. जवानों को व्यस्त रखने के नाम पर वैसे काम करवाना जिसके लिए उनकी भर्ती नहीं हुई है.
८. सैन्य जीवन में अधिकारियों की पत्नी का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दखल का अंत
9. शिकायत निवारण की आतंरिक व्यवस्था में परिवर्तन. वर्तमान व्यवस्था अधिकारियों के प्रति अपनी निष्ठा और झुकाव रखती है, जिसके कारण शिकायतकर्ता को न्याय तो मिलना दूर की  बात हो जाती है, उलटे उनका सामान्य जीवन अस्त व्यस्त हो जाता है.

हमारा उद्देश्य मात्र यह है कि हम सेना से जुड़े विषयों पर ostrich syndrome से ग्रसित न हों और उसमें जहाँ कहीं भी सुधार की जरुरत है, शीघ्रातिशीघ्र करें.

जय हिन्द


How to apply for enhanced Pension (EPS95) on EPFO web site: Pre 2014 retirees

                 Step wise guide A) Detailed steps. 1. Open EPFO pension application page using the link  EPFO Pension application The page ...