Dhaaraa370

Friday, 3 May 2019

तेज बहादुर यादव एक राजनीतिक मोहरा



तेजबहादुर यादव जी का वाराणसी से चुनाव लड़ने की घोषणा, पहले निर्दलीय और फिर समाजवादी उम्मीदवार के रुप में. सपा के दो उम्मीदवारों का नामांकन दाखिल होना और फिर ख़ारिज होना. तेजबहादुर यादव जी का नामांकन का ख़ारिज होना आज राजनीतिक गलियारों में चर्चा का सबसे बड़ा विषय बना हुआ है. बात राजनीति की चली है तो पहले इससे जुड़े राजनितिक पहलू की चर्चा करते हैं.

तेज बहादुर यादव जी का वाराणसी से चुनाव लड़ने का फैसला शुद्ध रूप से एक राजनितिक फैसला है और इसे सेना से जोड़कर देखना राजनितिक अपरिपक्वता की निशानी है. इससे उनको एक राजनितिक माइलेज मिला है और आने वाले दिनों में इसका राजनीतिक फायदा भी मिलेगा. सपा द्वारा उनको अपना प्रत्यासी घोषित करना, बहती गंगा में हाथ धोने जैसा ही है. अगर उनकी सोच सचमुच में तेजबहादुर जी को संसद में भेजना होता तो वे उसे किसी वैसे सीट से टिकट देते जहाँ से जीतने की गुन्जाईस होती. तेज बहादुर यादव किसी भी हालत में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के लिए चुनौती नहीं हो सकते हैं, यह बात उन्हें और उनके राजनितिक आकाओं को भी भली प्रकार मालुम है.

लोग इसे असली चौकीदार बनाम नकली चौकीदार, असली राष्ट्रवाद बनाम नकली राष्ट्रवाद जैसे भारी भरकम शब्दों से जोड़कर अपनी अपनी राजनीति चमकाने के कोशिश कर रहे हैं, इस राजनीतिक दंगल में अगर कुछ छूट गया तो वह है सेना और अर्धसैनिक बलों के असली मुद्दे, जिसमें किसी की दिलचस्पी नहीं है.

सेना से जुड़े मुद्दे इसलिए नहीं उठते हैं क्यूंकि इसका सीधा सम्बन्ध राष्ट्र की सुरक्षा से है. लेकिन जो दूरगामी परिणाम को समझते हैं वो इस बात से सहमत होंगे कि समस्या को टालना समस्या का समाधान नहीं हो सकता है.

 "Taking no decision is also a decision" will not serve the purpose in this case.

सेना को राजनीति से जोड़कर सैनिकों और राष्ट्र दोनों का अहित ना करें.इसलिए आइये  हम कुछ उन मुद्दों कि बात करें जो उनसे जुड़े हुए हैं  :

१. जवानों के वेतनमान विश्वस्तरीय हों.
२. समान रैंक सामान पेंसन का पुनरीक्षण
3. जवानों के सुविधाओं जैसे, छुट्टी, खान पान, रहने-सहने की बेहतर व्यवस्था
४. मेडिकल सुविधाओं में रैंक आधारित भेदभाव की समाप्ति 
४. सहायक प्रथा का तत्काल प्रभाव से अंत
५. योग्य जवानों के अधिकारी वर्ग में पदोन्नति के लिए नियम में उचित बदलाव
६. फॉर्म १० जैसे अतिवादी व्यवस्था का अंत- जिसमे अधिकारी जवानों को पागल घोषित कर जांच के लिए पागलखाना भेज देते हैं और फिर उसकी जिंदगी तबाह हो जाती है.
७. जवानों को व्यस्त रखने के नाम पर वैसे काम करवाना जिसके लिए उनकी भर्ती नहीं हुई है.
८. सैन्य जीवन में अधिकारियों की पत्नी का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दखल का अंत
9. शिकायत निवारण की आतंरिक व्यवस्था में परिवर्तन. वर्तमान व्यवस्था अधिकारियों के प्रति अपनी निष्ठा और झुकाव रखती है, जिसके कारण शिकायतकर्ता को न्याय तो मिलना दूर की  बात हो जाती है, उलटे उनका सामान्य जीवन अस्त व्यस्त हो जाता है.

हमारा उद्देश्य मात्र यह है कि हम सेना से जुड़े विषयों पर ostrich syndrome से ग्रसित न हों और उसमें जहाँ कहीं भी सुधार की जरुरत है, शीघ्रातिशीघ्र करें.

जय हिन्द


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