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स्वर्ग की अप्सरा |
आइये एक बौध्दिक नजर डालें.
सच तो यह है की स्वर्ग या नर्क किसी अलग लोक में निर्मित ईमारतें या परिस्थितियां नहीं हैं, जैसा की सांकेतिक तौर पर धार्मिक ग्रंथों में बताया जाता है. स्वर्ग और नर्क का अस्तित्व इसी धरती पर है और हमेशा हमारे साथ चलता रहता है.
जब चिंतन की धारा उत्कृष्ट और क्रिया-कलाप उच्चस्तरीय हो तो हम आनंद से भरे रहते हैं, और यही स्वर्ग है.अपनी सज्जनता बाहर के लोगों की श्रद्धा, सहानुभूति और योगदान लेकर लौटती है. ऐसे व्यक्ति घटिया व्यक्तियों, वस्तुओं और परिस्थितियों के बीच भी उल्लास भरा वातावरण बना लेते हैं. यही स्वर्ग का सृजन है,
स्वर्ग का सृजन मनुष्य के अपने हाथ में है. उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्तृत्व अपनाकर कोई भी मनुष्य आतंरिक प्रसन्नता और बाहर से सज्जनों का सद्भाव संपन्न सहयोग पाकर स्वर्गीय आनंद का रसास्वादन कर सकता है. उर्ध्वगमन ही स्वर्गारोहण है, पांडव इसी शांत-शीतलता की तलाश में हिमालय की चोटियों पर चढ़े थे.इस उपाख्यान में यह अलंकर व्यक्त किया गया है कि जितनी अधिक मात्र में उत्कृष्टता अपनाई जाएगी, अपनी स्थिति दूसरों की तुलना में उतनी ही ऊँची उठ जाएगी और उतनी ही मात्र में शांत-शीतलता का अनुभव होगा, स्वर्ग इसी प्रकार पाया जाता है.
ठीक उसी प्रकार दुर्बुद्धि बाले मनुष्य अपनी दूषित दृष्टि और दुष्प्रवृतियों के कारण अच्छे वातावरण में भी विक्षोभ उत्पन्न करते हैं. यही नर्क का सृजन है.
परिस्थितियां नहीं मनःस्थिति ही हमें नरक में डुबोती है और स्वर्ग के शिखर पर चढ़ाती है. नरक को नीचे पाताल लोक में बताया गया है और स्वर्ग को ऊपर आसमान में. इसका तात्पर्य इतना है कि पतित और निकृष्ट व्यक्तित्व अपनी दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृतियों के दुखद अनुभूतियों एवं परिस्थितियों से घिरा रहता है और यमदूत द्वारा उत्पीडन दिए जाने जैसी पीड़ा सहता है. यह यमदूत कोई और नहीं बल्कि अपने हीं कुविचार और कुकर्म हैं. गया-गुजरा स्तर अन्दर हीं अन्दर जलता है और बाहर से प्रतिकूलताएं सहता है, यही यमदूतों का दंड प्रहार है.
जहां प्रेम है, सहयोग है, सत्कर्म है, सदाचार है, शिक्षा है, विद्या है, वहीँ स्वर्ग है,
जहाँ घृणा है, स्वार्थ है, दुष्कर्म है, दुराचार है, अज्ञान और अभाव है वहीँ नर्क है.
अतः स्वर्ग में ७२ हूरें मिलेंगी, इस उम्मीद में अपनी बर्तमान जिंदगी को नर्क ना बनाएं.
जय हिन्द
सन्दर्भ- युगधर्मी साहित्य (पंडित श्री राम शर्मा आचार्य)