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Thursday, 3 October 2019

शिव के गले में सर्प , मस्तक से गंगा की धारा का ज्ञान विज्ञान (रहस्य भेद)







जीभ से अपने को आत्मा कहने वाले अनेक मिल जायेंगे पर जो दृढ विश्वास के साथ यह अनुभव करता है कि  “ मैं विशुद्ध आत्मा हूँ और आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं, वे हीं आत्मज्ञानी कहलाते हैं. लेकिन अनुभव प्राप्त करने से पहले यह जान लेना जरुरी होता है कि क्या हम सचमुच शरीर से अलग हैं? क्या शरीर को नियंत्रित करने वाला कोई ईश्वरीय सत्ता है? क्या ब्रह्मा, विष्णु, महेश हीं वो तीन ईश्वरीय विभाग हैं जो इस संसार को रचते हैं, पालते हैं और विनाश करते हैं?इन विषयों को गहराई में समझने के लिए हमें शरीर से परे शुक्ष्म स्तर पर जाना होगा. जीव के सूक्ष्म विज्ञान को समझना होगा . जीव के तीन ग्रंथियां (knots) होते हैं, जो उर्जा केंद्र होते हैं, 


इन ग्रंथियों के गुण भेद निम्न प्रकार हैं.

व्यावहारिक जीवन में इन्हें इस तरह से जाना जाता है.

दार्शनिक दृष्टि  से इन्हीं गुणों को इस तरह से देखा जाता है.

हमारे ऋषियों ने सूक्ष्म अन्वेषण के आधार पर यह बताया है कि तीन गुण, तीन शरीरों या तीन क्षेत्रों का व्यवस्थित या अव्यवस्थित होना हमारे शरीर के अदृश्य केन्द्रों पर निर्भर करता है .

साधनात्मक प्रक्रियाओं से गुजरते हुए जो व्यक्ति विज्ञानमय कोष की स्थिति में पहुँच जाता है तो उसे अपने भीतर तीन कठोर, गठीली, चमकदार गांठें दिखता है, जिसका विवरण इस प्रकार है 


इन तीन महाग्रन्थियों के दो  सहायक ग्रंथियां भी होती हैं, जो मेरुदंड (Spine) स्थित सुषुम्ना नाड़ी के मध्य में रहने वाली ब्रह्मनाडी के भीतर रहती हैं. इन्हें हीं चक्र भी कहते हैं. 



   रूद्र ग्रंथि के शाखा ग्रंथियां मूलाधार चक्र और स्वधिस्थान चक्र कहलाती है .


विष्णु ग्रंथि की दो शाखायें मणिपुर चक्र और अनाहत चक्र कहलाते हैं .
ब्रह्म ग्रंथि के शाखायों को विशुद्धि चक्र एवं आज्ञा चक्र कहते हैं.



आकार



१ रूद्र ग्रंथि : ग्रंथि का आकार बेर के सामान  ऊपर को नुकीला, नीचे को भारी, और पेंदे में गड्ढा लिए होता है, इसका वर्ण कालापन मिला हुआ लाल होता है.

  इस ग्रंथि के दक्षिण भाग को रूद्र और वाम भाग को काली कहते हैं. दक्षिण भाग के गह्वर में प्रवेश करके देखते हैं तो उर्ध्व में स्वेत रंग की छोटी सी नाड़ी हल्का सा स्वेत रस प्रवाहित करती है (शिव के मस्तक पर गंगा की धारा ) एक तंतु पीले वर्ण की ज्योति सा चमकता रहता है (चन्द्रमा), मध्य भाग में एक काले वर्ण की नाड़ी सांप की तरह मूलाधार से लिपटी हुई है ( गले में नाग), प्राण वायु का जब इस भाग से संपर्क होता है तो डिम डिम जैसी ध्वनि उसमें से निकलती है (डमरू).

  ऋषियों ने रूद्र (शिव) का सुन्दर चित्र इन्हीं गुणों को संकेत रूप में दिखाने के लिए अंकित किया है ताकि भगवान शंकर का ध्यान इन गुणों को ध्यान में रखकर किया जा सके. इस ग्रंथि का वाम भाग जिस स्थिति में उसी के अनुरूप काली का सुन्दर चित्र सूक्ष्मदर्शी अध्यात्मिक चित्रकारों ने अंकित कर दिया हैं.



  विष्णु ग्रंथि : 


  अगर विष्णु भगवन के विग्रह को देखा जाय तो विष्णु ग्रंथि के सारे गुणधर्म सहज हीं पता लग जाएगा . जैसे कि नील वर्ण, गोल आकार, शंख ध्वनि, कौस्तुभ मणि, बनमाला इत्यादि उस मध्य ग्रंथि का सहज प्रतिबिम्ब हैं.

  

  ब्रह्म ग्रंथि :

ब्रह्म ग्रंथि मध्य मस्तिष्क में है. इससे ऊपर सहस्त्रार शतदल कमल है, यह ग्रंथि ऊपर से चतुष्कोण और नीचे से फैली हुई है, इसका निचे का एक तंतु ब्रह्मा-रंध्र से जुड़ा हुआ है. इसी को सहस्त्रमुख वाले शेष नाग के शैया पर लेटे हुए भगवान की नाभि कमल से उत्पन्न चार मुखवाला ब्रह्मा चित्रित किया है. इसी के वाम भाग को चतुर्भुजी सरस्वती कहते हैं. वीणा झंकार से इस  क्षेत्र में ऊंकार ध्वनि निरंतर गुंजित होता रहता है 

यह तीन ग्रंथियां जब सुप्त अवस्था में रहती हैं, बंधी हुई रहती हैं तब तक जीव साधारण दीन हीन अवस्था में पड़ा रहता है, पर जब इनका खुलना प्रारंभ होता है तो उनका वैभव बिखर पड़ता है.

अध्यात्म के रास्ते पर चलकर इन बंधनों को खोला जा सकता है और  भौतिक एवं दैविक सभी लक्ष्यों को हासिल करना आसान बनाया जा सकता है.

टिपण्णी- अगर अध्यात्म के ज्ञान विज्ञान से जुड़े किसी भी प्रकार का शंका हो तो बताएं ताकि वैज्ञानिक अध्यात्मवाद को बढ़ावा मिल सके .


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