माननीय नसीरुद्दीन साहेब,
जय हिन्द,
डर, वो डर जो आज आपको लग रहा है, ऐसा नहीं है कि सिर्फ आपको लग रहा है, ऐसा भी नहीं कि सिर्फ आज हीं लग रहा है.
डर तो सदियों से हीं कायरों का आभूषण रहा है. जरा याद कीजिए सिकंदर के भारत आक्रमण को. जो शान से उस आतंक के सामने खड़ा रहा था वह राजा पोरस थे और आज भी हम उन्हें शान से याद करते हैं. जो डर गए उन्हें कौन अपने दिल में जगह देता है आज. हार या जीत अलग विषय है, मुद्दा तो ये है कि हम किसके साथ और किसके खिलाफ खड़े थे.
याद मुगलों के आक्रमण को भी करिए, ना जाने कितने लोग गाजर मुली कि तरह काट दिए गए, कितने लोग उस आंधी के सामने हिमालय कि तरह अड़े रहे, कितने लोग डर के कारण उनकी सरपरस्ती स्वीकार कर उनके गुलाम हो गए. जो अड़े रहे उन्हें घास कि रोटियां खानी पड़ी, बच्चों को भूख प्यास से तड़पते देखना पड़ा, उन्हें अपने बच्चों को दीवारों में जिन्दा दफ़न होते देखना पड़ा, लेकिन आज हम उन महाराणा और गुरु गोविन्द सिंह जी के याद मात्र से विश्वास और जोश से भर जाते हैं. और जो डर गए थे उनकी जगह इतिहास के काले पन्नों में कहाँ दफ़न हो गए जिसका कोई अता पता भी नहीं है.
याद अंग्रेजों के आक्रमण को भी करिए, जब हिन्दुस्तानियों को जानवरों से भी बदतर समझा जाता था, विरोध के हर स्वर को कुचल दिया जाता था. उस डर के माहौल में मंगल पाण्डेय, लक्ष्मी बाई, भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, खुदी राम बोस. रामप्रसाद बिस्मिल, गाँधी जी, लाल - बाल- पाल जैसे महान देशभक्तों ने अपने बच्चे अपने परिवार के लिए डर नहीं रहे थे बल्कि देश की आजादी के लिए कुर्बानियां दे रहे थे. आज हम उन्हें सर माथे पे बिठाते हैं, इसलिए नहीं कि वो आपकी तरह डर का बेमौसम ढोल बजा रहे थे बल्कि इसलिए कि डर को हटाने के लिए कुर्बानियां दी थी.
भागलपुर दंगे, आपातकाल, ८४ के सिखों का नरसंहार, गोधरा काण्ड, २००२ के दंगे, मुंबई बम ब्लास्ट, संसद पर हमला, सिपाही औरंगजेब कि हत्या, पुलिस अधिकारी मोहम्मद अयूब पंडित की मस्जिद के बाहर मोब लिंचिंग, निर्भया काण्ड, मुंबई में फूटपाथ पर सो रहे कई लोगों की गाड़ी से कुचल कर हत्या, हाल ही में कर्नाटक में उजागर हुए ५२ दलितों एवं आदिवासियों के ऊपर निर्मम अत्याचार एवं यौन शोषण का मामला को भी याद कीजिए.
देश में दंगे, हत्या, बलात्कार, शोषण होता रहा है और शायद होता भी रहेगा यदि हम इन घृणित अपराधों को दलीय, जातीय, क्षेत्रीय, और धार्मिक चश्मों से देखना बंद नहीं करते और इन दंगाइयों, आतंकियों के बचाव में खड़े होना बंद नहीं करेंगे. लेकिन आप तो इनके बचाव में अदालत तक पहुँच जाते हैं और फिर कहते हैं कि हमें डर लगता है. आप डर की खेती करेंगे और सुरक्षा कि फसल काटना चाहेंगे तो कैसे होगा नसिर साहेब.
आप तो मुंबई के पौश इलाके में सुरक्षित रहते हैं, आपके एक बयां से देश में राजीनीतिक भूचाल आ जाता है तब तो आपको इतना डर लगता है. जरा उनकी सोचिये जिनकी चीख और चिल्लाहट ट्रेन के बंद डिब्बे में जलकर खाक हो गई थी, उनकी सोचिये जिन परिवारों को अलग अलग सालों में अलग अलग समुदायों के द्वारा घर के अन्दर जला दिया गया था, जरा सोचिये उन ५२ दलितों एवं आदिवासियों के बारे में जिन्हें पिछले तीन सालों से गुलामों के तरह काम लिया जा रहा था, मेहनताने के रूप में एक जुन कि रोटी नसीब नहीं थी, ऊपर से महिलायों का यौन शोषण किया जा रहा था. क्या हाल होता होगा उन मासूम बेटियों का जब हंटर वाले अंकल रात को दरवाजे के अन्दर घुसते होंगे.
लेकिन आपको मुद्दों से क्या लेना, आप तो डर की खेती कर राजनितिक मंडियों में बेचनेवालों में से हैं. आप एक जिम्मेदार नागरिक बनिए खुद व खुद देश सुरक्षित लगने लगेगा और कहीं खतरा आया तो हम मिल जुल कर निबट लेंगे. अपने बच्चों के लिए कब तक लगे रहेंगे, आइये उन बच्चों के लिए सोचें, बोलें , करें ; जो असहाय हैं, गरीब हैं, भूखे हैं, अशिक्षित हैं.
जय हिन्द
एक आम भारतीय